Tuesday, April 29, 2008

स्टेम सेल बैंकिंग: जैविक बीमा (भाग 2)


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



(गतांक से आगे... )

विज्ञान हमेशा से ही कौतूहल का विषय रहा है. यह पढ़कर आश्चर्य मत कीजिए कि स्टेम सेल से दिल का वॉल्व, फेफड़ा, धमनियाँ, उपास्थि, मूत्राशय और कृत्रिम शुक्राणु भी बनाया जा चुका है. स्टेम सेल से स्वस्थ और सक्रिय ह्रदय पेशियाँ बनाकर गंभीर ह्रदय रोगों से जूझ रहे मरीजों में सीधे ट्रांसप्लांट की जा सकती हैं या इंसुलिन का निर्माण करने वाली पेंक्रियाज़ की बीटा कोशिकाएँ डायबीटिज़ के रोगियों में ट्रांसप्लांट की जा सकती हैं. पढ़ने में तो यह भी आया है कि केवल 4 जीनों की हेरा-फेरी करके चूहे की त्वचीय कोशिकाओं को भ्रूणीय स्टेम सेल में तब्दील किया जा चुका है. 16 जनवरी 2008 के एक ताज़ा अनुसंधान के मुताबिक कैलिफ़ोर्निया की एक कंपनी ने साधारण त्वचा कोशिका से मानव भ्रूण बनाने का दावा किया है. है ना कमाल की खोज! यहाँ आपको यह याद दिला दें कि डॉली नामक भेड़ भी स्टेम सेल की ही देन थी.

स्टेम सेल बैंकिंग को एक युगांतकारी तकनीक माना जा रहा है. इन कोशिकाओं ने बहुतों का जीवन बचाया है. ज़रा सोचिए कि आपके बच्चे के पास अपने आनुवांशिक स्रोत से 100% मेल खाता कोई स्रोत होगा और उसका शरीर किसी भी परिस्थिति में उसे बहुत आसानी से अपना लेगा. इस अद्वितीय जैविक स्रोत को संग्रहीत करने और सहेज कर रखने का मौका आपको जीवन में केवल एक ही बार मिलेगा. यह सिर्फ़ बच्चे के लिए नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए निवेश है क्योंकि एक ही परिवार के सदस्यों (ख़ासकर सहोदर भाई-बहनों) में ट्रांसप्लांटेशन की विफलता की संभावना कम होती है. एक बार इन कोशिकाओं को बैंक में रखकर आप हमेशा के लिए निश्चिंत हो सकते हैं. उन बच्चों के लिए तो यह आशा की एक किरण है, जिनके परिवारों में आनुवांशिक बीमारियों का इतिहास हो. तब की बात अलग थी जब इतनी तकनीकें, उपकरण और सुविधाएँ नहीं थी. शरीर और बीमारियों को भगवान की देन मानकर, जस-का-तस स्वीकार कर लिया जाता था. पर आज का समय संतुष्टि का नहीं है, आज का समय थोड़ा और विश करने का है... अपनी ही कोशिकाओं से, अपने इच्छित गुणों का समावेश करके, अपने ही समान अंग बना लेना, यह विश विज्ञान ही पूरी कर सकता है. शरीर की कठपुतली को विज्ञान अब अपने इशारों पर नचा सकता है.

स्टेम सेल्स पर आधारित उपन्यास "होप: इन विट्रो" (2007 में प्रकाशित) की तर्ज पर भारतीय मूल के एक अमेरिकी चिकित्सक ने "होप" नामक फ़िल्म भी बना डाली है, जो वर्ष 2008 के कान फ़िल्मोत्सव में प्रदर्शित की जाने वाली है. स्टेम सेल बैंकिंग निश्चित ही आने वाले समय की महानतम उपलब्धियों में से एक होगी. आपको ताज्जुब होगा कि चीन के थिएनचिन शहर के एक जीन बैंक में 3 लाख बच्चों की गर्भ-नालें सुरक्षित हैं. हमारे यहाँ ये आँकड़े शायद कुछ हज़ार में ही हैं. इसका सबसे बड़ा कारण है जागरूकता का अभाव और जैविक से ज़्यादा भौतिक पूँजी को महत्व देना. गाड़ी, बंगला और ऐशो-आराम में निवेश के लिए तो जीवन पड़ा है, लेकिन कोशिकाओं का निवेश जीवन में सिर्फ़ एक ही बार हो सकता है. बीमारियों और लाचारियों से भरा भूतकाल भूल जाने के लिए, अपनी आने वाली पीढ़ियों का स्वस्थ और सुनहरा भविष्य बुनने के लिए, जीवन की रक्षा का यह अकूत भंडार हमें आज ही संभाल कर रखना होगा. क्योंकि एक बार ही तो मिलनी है, जीवन की यह मधुशाला...

स्टेम सेल बैंकिंग: जैविक बीमा (भाग 1)


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी



आज से 3000 ईसा पूर्व बीमा की नींव रखते वक्त चीन के व्यापारियों ने सोचा भी नहीं होगा कि भौतिक वस्तुओं का बीमा करवाते-करवाते हम एक दिन जैविक वस्तुओं का बीमा भी करवाने लग जाएँगे. लेकिन मनुष्य बड़ा सयाना प्राणी है... ज़मीन-जायदाद, स्वास्थ्य और वाहनों के बाद उसने अब अपनी कोशिकाओं का बीमा करवाने का तरीका भी ढूँढ निकाला है, ताकि किसी दुर्घटना या बीमारी की स्थिति में बैंक में रखी ख़ुद की कोशिकाओं से वह अपना और अपने परिवार का जीवन बचा सके...जी हाँ ये चमत्कार नहीं है, ये एक लाइफ़ टाइम अपॉर्चुनिटी है, जिसे "स्टेम सेल बैंकिंग" कहते हैं.

स्टेम सेल बैंकिंग के बारे में जानने से पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि स्टेम सेल क्या है. स्टेम सेल्स दरअसल बहुकोशिकीय जीवों में पाई जाने वाली वे कोशिकाएँ हैं, जिन्हें करने के लिए शरीर ने कोई ख़ास काम नहीं दिया है. एक स्टेम (तना) जिस तरह शाखाएँ, पत्तियाँ, प्रतान, कलियाँ, फल, फूल और बीज बना सकता है, उसी तरह स्टेम सेल्स में भी शरीर की सारी कोशिकाओं की भूमिका निभाने की क्षमता होती है. ये कोशिकाएँ शरीर का कच्चा माल हैं, जिन्हें 300 प्रकार की कोशिकाओं में बदला जा सकता है. स्टेम सेल्स अविभेदित होती हैं, कोई काम न होने पर वर्षों तक अंगों में सुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं और जरूरत पड़ने पर विभाजन द्वारा अनगिनत कोशिकाएँ बना सकती हैं. जैविक सिग्नल इनके लिए उत्प्रेरणा का कार्य करते हैं, जिससे सुप्त जीन सक्रिय हो जाते हैं, कोशिका नए प्रोटीन बनाती है और विभाजन व विभेदन (शरीर के विशिष्ट अंगों की कोशिकाएँ बनना) शुरू हो जाता है. एक बार विभेदन हो जाने के पश्चात इनका विभाजन रूक जाता है. इस तरह एक निष्क्रिय कोशिका अलग-अलग तरह के सक्रिय ऊतकों में बदल जाती है.

अब ये देखते हैं कि हमारे शरीर में स्टेम सेल्स बनती कैसे हैं. आप जानते होंगे कि अंडाणु और शुक्राणु के संयोग से भ्रूण बनता है. एक कोशिका के रूप में बना यह भ्रूण तेजी-से कई कोशिकाओं (ब्लास्टोमीयर) में विभाजित हो जाता है. जब इन कोशिकाओं की संख्या 20 से 30 तक हो जाती है तो शहतूत या अंगूर के गुच्छे के आकार की एक संरचना प्राप्त होती है, जिसे मोरुला कहते हैं. यह मोरुला आगे और विभाजन करके एक गेंद के समान आकृति वाला ब्लास्टोसिस्ट (50-150 कोशिका) बनाता है. इस ब्लास्टोसिस्ट में इनर सेल मास नाम का कोशिकाओं का एक समूह होता है, जो भविष्य में भ्रूणीय स्टेम सेल्स बनाता है.

स्टेम सेल्स के मुख्य स्रोत हैं- गर्भ नाल से प्राप्त रक्त, एम्नियोटिक तरल, कृत्रिम निषेचन से प्राप्त भ्रूण, वयस्कों का मस्तिष्क, अस्थि मज्जा (बोन मैरो), किडनी, परिधीय रक्त, रक्त वाहिकाएँ, कंकाल पेशियाँ और लीवर. पहले कृत्रिम रूप से बनाए गए भ्रूण या ब्लास्टोसिस्ट की कोशिकाओं को निकालकर, उनका संवर्धन करके स्टेम सेल बनाई जाती थी तथा उनका उपयोग अनुसंधान और उपचार में किया जाता था. यह एक अनैतिक तकनीक थी, जिसमें भ्रूण को मारा जाता था या मरे हुए भ्रूण का उपयोग किया जाता था. पर अब वैज्ञानिकों ने इसका भी विकल्प खोज लिया है. उन्होंने एक ऐसे स्रोत की खोज कर ली है, जिसे सामान्यत: शिशु के जन्म के बाद फेंक दिया जाता है. स्टेम सेल के इस समृद्ध ख़जाने का नाम है- गर्भ नाल और प्लेसेंटा पर बचा रक्त. स्टेम सेल बैंकिंग में इसी स्रोत को भविष्य के उपयोग के लिए सहेज लिया जाता है. वेस्ट का इससे बेस्ट उपयोग और क्या हो सकता है?

भ्रूणीय स्टेम सेल के 5,000 प्रोटीन पहचाने जा चुके हैं और इससे 75 से भी अधिक बीमारियों का इलाज संभव है. बैंकिंग की प्रक्रिया में कोशिकाओं को क्रायोजेनिक तरीके से (-196°c तापमान पर) कई वर्षों के लिए संरक्षित करके रखा जा सकता है. प्रयोगशाला में कोशिका को उपयुक्त पोषक पदार्थ और वृद्धि कारकों की उपस्थिति में संवर्धित किया जाता है, जिससे विशिष्ट जीन सक्रिय होते हैं, कोशिका विभाजन बढ़ता है और विशेष ऊतकों का निर्माण होता है. इन ऊतकों से अंग और अंग से अंग तंत्र बनते हैं. स्टेम सेल्स का उपयोग कर बनाए गए अंगों की आनुवांशिक संरचना में रत्ती-भर भी विविधता नहीं होती.

आखिर ऐसा क्या जादू है इन कोशिकाओं में जो इन्हें इतना महत्व दिया जा रहा है? जवाब है- इनकी स्वत: नवीकरण की अद्भुत क्षमता. कोशिकाओं का यही गुण इन्हें रीजनरेटिव मेडीसिन्स और ऊतक व अंगों के ट्रांसप्लांटेशन का बेहतरीन विकल्प बनाता है. स्टेम सेल्स, कोशिकाओं और ऊतकों का अक्षय भंडार है. इन कोशिकाओं से आप पेंक्रियाज़, लीवर, माँसपेशी, हड्डी, रक्त, त्वचा या तंत्रिका तंत्र, जो मर्जी हो, वो बना सकते हैं. स्टेम सेल्स के उपयोग का सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि ये कोशिकाएँ हमारे अपने शरीर की होती है तथा हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें बाहरी समझकर अस्वीकार नहीं करता. यह तकनीक उन स्थितियों में भी बहुत कारगर है, जहाँ अंग प्रत्यारोपण संभव नहीं होता, जैसे लीवर या गॉल ब्लैडर के कैंसर (ये अंग शरीर में जोड़े में नहीं होते अत: कैंसर की अंतिम अवस्था में पता चलने पर इन्हें काटकर अलग नहीं किया जा सकता) या अंतिम अवस्था में ब्लड कैंसर का पता चलने पर. रक्त कोशिका बनाने वाली (हीमोपोएटिक) स्टेम सेल का उपयोग आज-कल ब्लड कैंसर और एनीमिया के उपचार में किया जा रहा है. अल्ज़ाइमर, एड्स, स्ट्रोक, बर्न (जलना), ह्रदय की बीमारियाँ, गठिया और ब्लॉकेज का इलाज बहुत आसान हो गया है. ल्यूकेमिया, हिस्टियोसाइटिक और फ़ेगोसाइटिक डिसऑर्डर, प्रतिरक्षा तंत्र, प्लेटलेट्स, आरबीसी, प्लाज़्मा सेल और चयापचय की असामान्यताएँ, पीठ व कमर के दर्द, बुढ़ापे के कारण होने दृष्टि-दोषों, कैंसर, पार्किंसन, डायबीटिज़, स्पाइनल कॉर्ड को होने वाली क्षतियों और कई प्रकार के आनुवांशिक रोगों और ट्यूमर को हमेशा के लिए ठीक किया जा सकता है.

(जारी है...)

Sunday, April 27, 2008

"डार्विन के चूल्हे पर जीवन की खिचड़ी"

इंटरनेट पर एक निठल्ली सर्फिंग के दौरान आज डार्विन साहब से मुलाकात हो गई. अब ये मत पूछिए कि डार्विन कौन? डार्विन यानि चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन. चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन यानि जैव-विकास के प्रणेता. जीव-विज्ञान के वही आदि-पुरूष, जिन्होंने मनुष्य को बंदरों की संतान कहा था. वे उन्नीसवीं सदी के महान प्रकृतिविज्ञानी थे, जो महज 22 वर्ष की आयु में बीगल नामक लड़ाकू जहाज पर विश्व-भ्रमण के लिए चल पड़े थे. इस दौरान पूरी दुनिया के अनगिनत स्थानों से उन्होंने जीव-जंतु, पेड़-पौधे, पत्थर व चट्टानों के टुकड़े और जीवाश्म इकट्ठे किए. बरसों तक उन पर गहन शोध, निरीक्षण तथा विश्लेषण किया व इन खोजों का परिणाम "प्राकृतिक चयन द्वारा जाति का विकास" (Origin of species by Natural selection) नामक पुस्तक के रूप में सबके सामने आया. उद्विकास के क्षेत्र में यह किताब नींव का पत्थर साबित हुई. डार्विन के बिना जैव-विकास के सिद्धांत अधूरे हैं. खैर....मेरा इरादा यहाँ डार्विन और उनके प्रयोगों के बारे में बात करना नहीं है. मुझे तो यहाँ डार्विन के विचारों के बारे में बात करनी है. जानते हैं, स्कूल में मेरे लिए डार्विन के सिद्धांतों का महत्व 10 नंबर के एक प्रश्न के उत्तर के अलावा कुछ भी नहीं था. पर जब धीरे-धीरे समझ बढ़ने लगी, तो यही सिद्धांत जीवन से जुड़े लगने लगे. तब मेरे लिए डार्विन के सिद्धांत केवल जानकारी थे, लेकिन अब उनकी अनुभूति होने लगी है. ओशो के शब्दों में- "एक ज्ञान है- केवल जानना, जानकारी और बौद्धिक समझ. दूसरा ज्ञान है- अनुभूति, प्रज्ञा, जीवंत प्रतीति. एक मृत तथ्यों का संग्रह है, एक जीवित सत्य का बोध है. ज्ञान को सीखना नहीं होता है, उसे उघाड़ना होता है. सीखा हुआ ज्ञान जानकारी है, उघड़ा हुआ ज्ञान अनुभूति है." डार्विनवाद के ज़रिए कितने आसान शब्दों में डार्विन ने जीवन की परिभाषा गढ़ दी थी. आइए, उसी डार्विनवाद के भीतर झाँककर जीवन को देखने की कोशिश करते हैं.

डार्विन ने जीवन-संघर्ष (Sturrgle for Existance) को प्राणी के विकास का आधार माना है. अगर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखें तो, जनसंख्या बढ़ जाने के कारण भोजन तथा आवास के लिए प्राणियों में एक सक्रिय संघर्ष उत्पन्न होता है, जिसे जीवन-संघर्ष कहते हैं. यह संघर्ष तीन प्रकार का होता है:1. सजातीय (एक ही जाति के सदस्यों के बीच) 2. अंतर्जातीय (दो जातियों के सदस्यों के बीच) 3. वातावरणीय (वातावरणीय कारकों के साथ). अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हर प्राणी को इन संघर्षों से जूझना ही है. ठीक ही कहा था डार्विन ने... हम सब भी तो जीवन-संघर्ष में उलझे हुए हैं. कदम-कदम पर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी-न-किसी संघर्ष से दो-चार हो रहे हैं. पैसा, सफलता, परिवार, शोहरत, कॅरियर, हर जगह संघर्ष पसरा पड़ा है. जाति के दायरे में ही जीवन के लिए संघर्ष शुरू होता है. एक ही ऑफ़िस के दो कर्मचारियों के बीच प्रमोशन के लिए सजातीय संघर्ष हो रहा है, तो वहीं बॉस और अधीनस्थों के बीच अपने- अपने इगो को लेकर अंतर्जातीय संघर्ष हो रहा है. एक आदमी अपने अरबों रूपये कहाँ निवेश करे इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं दूसरा आदमी अपने भूखे बच्चों के लिए एक वक़्त की रोटी का जुगाड़ कैसे करे, इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है. घर में हो या बाहर, वातावरणीय संघर्ष से तो हम रोज़ जूझते हैं. वातावरण तो प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष हर रूप में प्राणी को प्रभावित करता है. वातावरण जितना अनुकूल, जितना पवित्र, जितना ऊर्जा से लबरेज, जितना मेहनत और ईमान से सराबोर, परिस्थितियों से संघर्ष उतना कम... वातावरण जितना प्रतिकूल, जितना ख़राब, स्वार्थ, झूठ और मक्कारी से भरा हुआ, संघर्ष उतना ज्यादा. संघर्ष हर कहीं है और हर कोई अपने-अपने स्तर पर संघर्षरत है. सच्चाई तो यह है कि बिना संघर्ष के जीवन में सौंदर्य नहीं रहता. संघर्ष ही जीवन का ध्येय है, विकास की पहली शर्त है.

डार्विन के अनुसार- जीवन-संघर्ष में योग्यता की हमेशा जीत होती है और अयोग्यता हमेशा हारती है. प्रकृति स्वयं अपने लिए अनुकूल जीवों का चयन करती है. डार्विन ने इसे प्राकृतिक चयन (Natural selection) कहा था. जीवन-संघर्ष में वातावरण के अनुकूल जीवों का जीवित रहना व प्रतिकूल जीवों का नष्ट होना ही प्राकृतिक चयन है. इसी प्राकृतिक चयन को हर्बर्ट स्पेंसर ने योग्यतम की उत्तरजीविता (Survival of the fittest) नाम दिया था. वातावरण के लिए पूर्णत: अनुकूल जीव योग्यतम कहलाते हैं. हमारे दैनिक जीवन में भी इसके कई उदाहरण देखने को मिल जाएँगे. आज भी जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष के बाद जीत अंतत: योग्यता की ही होती है. योग्यतम जीव स्वयं को बहुत आसानी से अपने परिवेश के अनुसार ढाल लेते हैं और परिस्थितियों के सामने अधिक समय तक टिके रहते हैं. वातावरण सदा ही परिवर्तनशील है, इसलिए जिन्हें अपना अस्तित्व बचाना है, वे हर प्रतिकूल परिस्थिति का डटकर सामना करते हैं और उसे अपने अनुकूल बना लेते हैं, और अगर परिस्थितियों को अनुकूल नहीं बना पाते तो स्वयं परिस्थितियों के अनुकूल बन जाते हैं.

डार्विन ने जीवों में विविधता की भी व्याख्या की है. उनके अनुसार प्रत्येक प्राणी अद्वितीय होता है. एक ही वंश, एक ही जाति, यहाँ तक कि एक ही माता-पिता की जुड़वाँ संतानों में भी विविधता होती है. ईश्वर की दक्षता की दाद देनी होगी, जिसने हर कृति का निर्माण ऐसे किया है कि वह अपने-आप में विलक्षण है. एक चींटी से लेकर एक डायनासोर तक और एक शैवाल से लेकर एक विशालकाय वृक्ष तक सभी यूनिक जीनोटाइप और फ़ीनोटाइप के मालिक हैं. भगवान को भी आश्चर्य होता होगा कि इतना ख़ास बनाने के बाद भी हम उसके सामने अपनी कमियों का रोना रोते रहते हैं. परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं...जीव बदलते रहते हैं... और विभिन्नताओं के कारण धीरे-धीरे नई जाति की उत्पत्ति होती है. विविधता बढ़ती जाती है और नई पीढ़ी अपने पूर्वजों से श्रेष्ठ होती जाती है. अपनी रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में भी प्रकृति की तरह थोड़ी विविधता लाकर देखिए, बिलकुल नए और तरो-ताज़ा कर देने वाले परिणाम मिलेंगे. परिवर्तन का नियम हमें प्रकृति ने ही सिखाया है.

डार्विन ने अपने प्रयोगों से यह भी निष्कर्ष निकाला कि विकास के दौरान बड़े जानवर भोजन की कमी, जीवन और वातावरणीय संघर्ष में समाप्त होते गए तथा छोटे आकार के प्राणी अपने प्राकृतिक आवास, स्वभाव में परिवर्तन के कारण जीवन को सुचारू रूप से चला सके. बात तो सही है... आज भी वही कामयाब है जो अपने स्वभाव में परिवर्तन करने और खुद को माहौल में ढालने की हिम्मत रखता हो. जीवन की शुरुआत में ही प्रकृति ने अपनी हर रचना को "एडजस्टमेंट" नामक शब्द सिखा दिया था. छोटे प्राणियों को इस शब्द का अर्थ समझने में कोई परेशानी नहीं आई, पर जहाँ बड़प्पन आड़े आ गया वहाँ न अनुकूलता रही, न योग्यता और न ही उत्तरजीविता. भीमकाय डायनासोर की विलुप्ति और सूक्ष्मजीवियों का आज तक अस्तित्व में होना इसका बेहतरीन उदाहरण है.

अणु और परमाणुओं से जीवन की उत्पत्ति हुई, एक कोशिका के रूप में जीवन का विकास हुआ और विकास के असंख्य स्तरों को पार करता हुआ जीवन आज बुद्धिमत्ता की उस चरम सीमा तक पहुँच गया, जिसे मनुष्य कहते हैं... जीवन-संघर्ष के योग्यतम पात्र मनुष्य ने आज प्रकृति पर विजय पा ली है. आज वह प्रयोगशाला में मनचाहे वातावरण में, मनचाही नस्लों का निर्माण कर रहा है...आज हर उस काम में उसकी दखलअंदाजी है, जो कभी प्रकृति ने किए थे. उद्विकास आज भी जारी है...संघर्ष अब भी बरकरार है...एक ऐसी अनवरत प्रक्रिया जो शायद ही कभी थमे...

जगदीश गुप्तजी के शब्दों में डार्विनवाद का सार देखिए-

"सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही.
संघर्ष से हटकर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम,
जो नत हुआ, वो मृत हुआ, ज्यों वृंत से झरकर कुसुम,
जो लक्ष्य भूल रूका नहीं, जो हार देख झुका नहीं,
जिसने प्रणय-पाथेय माना, जीत उसकी ही हुई.
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही.

ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे,
जो है जहाँ, चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे,
जो भी परिस्थितियाँ मिलें, काँटे चुभें, कलियाँ खिलें,
हारे नहीं इंसान, है संदेश जीवन का यही,
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है महज संघर्ष ही."

'http://www.blogvani.com/logo.aspx?blog="http://euphoria-neha.blogspot.com/'

शरीर का बायोकेमिकल लोचा और योग


योग का अर्थ है शरीर, मस्तिष्क और आत्मा को जोड़ना. योग की आत्मा को "योगा" के शरीर से निकाल कर लाने वाले स्वामी रामदेव के शब्दों में "योग एक जीवन जीने की कला, योग एक जीवन जीने की विधा, योग एक वो परिकल्प है, जिससे हम अपने अस्तित्व, अपनी चेतना से जुड़ते हैं, गहरे." आज भी योग उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना ऋषि-मुनियों के ज़माने में हुआ करता था. परंतु बदलती हुई परिस्थितियों के साथ योग की आवश्यकता और बढ़ गई है. शरीर, आत्मा और मस्तिष्क तो आज भी वही हैं जो जीवन की शुरुआत में थे, लेकिन तब का जीवन बहुत सरल और सहज था. दूसरों से आगे निकलने की दौड़ में संघर्ष, प्रतियोगिता, तनाव, अवसाद और निराशा जैसे रोड़े हमने स्वयं खड़े किए हैं. हमने अपने जीवन को इतना कठिन बना लिया है कि आने वाली पीढ़ियों को शायद ये ही न पता हो कि सामान्य जीवन क्या होता है...

शास्त्रों के अनुसार सृष्टि में 84 लाख योनियाँ हैं और इन सभी में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है. यह जीवन और यह शरीर हमें एक ही बार मिला है. प्रकृति की इस अनमोल धरोहर को सुंदर और स्वस्थ बनाने की जिम्मेदारी हमारी है... और इस जिम्मेदारी को बख़ूबी निभाने में हमारा सच्चा साथी है- योग. योग वैकल्पिक चिकित्सा विज्ञान के रूप में उभरकर सामने आ रहा है. योग एक प्राकृतिक चिकित्सा है, जिसे अगर सही तरीके से किया जाए तो सिर्फ़ लाभ-ही-लाभ हैं. योग से गंभीर और लाइलाज बीमारियों से भी छुटकारा पाया जा सकता है. डॉक्टरों और अस्पतालों के अनाप-शनाप खर्चों, अन्य चिकित्सा पद्धतियों पर निर्भरता और दवाइयों के साइड-इफ़ेक्ट्स, सभी मर्जों की एक ही दवा है- योग.

आधुनिक समाज में यह मान्यता घर कर गई है कि योग का विज्ञान से नहीं, केवल धर्म और अध्यात्म से ही नाता है. हमारे इस पढ़े-लिखे समाज ने यह मान लिया है कि एलोपैथी जैसी चिकित्सा पद्धति ही वैज्ञानिक और प्रामाणिक है. हमारा दिल और दिमाग हर बात को वैज्ञानिक संदर्भ से समझने का आदि हो गया है. अगर ऐसा ही है तो आइए योग को विज्ञान से जोड़ कर देखा जाए...

योग शरीर की बायोकेमिस्ट्री पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है. यह
शरीर की प्रत्येक कोशिका को ऊर्जा और सक्रियता से भर देता है और उनमें जीवन का संचार करता है. योगिक क्रियाएँ दरअसल बायोकेमिकल और फिज़ियोलॉजिकल प्रक्रियाओं का समन्वय ही हैं.

योगासनों में हाथ को बहुत महत्वपूर्ण अंग माना गया है. हथेलियों और ऊँगलियों में बहुत-सी तंत्रिकाओं के सिरे होते हैं, जिनसे लगातार बायोइलेक्ट्रिक ऊर्जा निकलती रहती है. ऊँगलियों के पोरों पर स्थित कुछ विशिष्ट बिंदुओं को स्पर्श करने या दबाने से ऊर्जा का परिपथ (सर्किट) पूरा होता है. योग की मुद्राएँ किसी विशेष तंत्रिका या तंत्रिका गुच्छ को सक्रिय करके विशेष सिग्नलों को उत्तेजित करती हैं. इसलिए इन मुद्राओं का अत्यधिक मानसिक और शारीरिक प्रभाव होता है. योग की कुछ मुद्राओं से मानसिक क्षमता भी बढ़ती है, याददाश्त तेज़ होती है, मानसिक एकाग्रता बढ़ती है, सोचने की प्रक्रिया और नई चीज़ों को ग्रहण करने और सीखने की क्षमता बढ़ती है. योग करने से दिमाग़ी बीमारियों से भी बचा जा सकता है. इनसोम्निया (अनिद्रा रोग) के मरीजों के लिए योग बहुत फ़ायदेमंद है. तुनक-मिजाज़, चिड़चिड़े और असहिष्णु स्वभाव वाले लोगों में योग करने के बाद आश्चर्यजनक परिणाम देखे गए हैं. यह तंबाकू और शराब के व्यसनों तथा आपराधिक प्रवृत्ति से भी मुक्ति दिलाता है.

योग शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र की शक्ति और सामर्थ्य बढ़ाता है, शरीर की रक्षा-प्रणाली को पुष्ट बनाता है और रोगों से लड़ने में मदद करता है. इसके नियमित अभ्यास से हायपो और हायपरथायरॉइडिज़्म व विभिन्न प्रकार के कैंसर में सुधार होता है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) ने भी कैंसर पर योग के प्रभावों की पुष्टि की है. एड्स और आर्टीरियोस्क्लेरोसिस के मरीजों में योग करने के बाद अच्छी रीकवरी देखी गई है.

खिलाड़ियों के लिए तो योग किसी वरदान से कम नहीं है. योग व्यग्रता कम करता है, एकाग्रता बढ़ाता है और साँस लेने का सही तरीका सिखाता है. खिलाड़ियों का स्टेमिना बढ़ाता है, ताकि वे अच्छा प्रदर्शन कर पाएँ. एक सर्वेक्षण के दौरान योग करने वाले फ़ुटबॉल खिलाड़ियों के संपूर्ण रक्त चित्र, हीमोग्लोबिन प्रतिशत, लीवर फ़ंक्शन टेस्ट, किडनी फ़ंक्शन टेस्ट और लिपिड प्रोफ़ाइल में उल्लेखनीय सुधार देखा गया. योग न करने वाले खिलाड़ियों की अपेक्षा इनके रक्त-चाप, नाड़ी-दर, वजन, BMI (बॉडी मास इंडेक्स), वसा प्रतिशत, FVC (फोर्स्ड एक्सपायरेटरी वाइटल केपेसिटी), FEV1 (1 सेकंड में फोर्स्ड एक्सपायरेटरी वोल्यूम) के आँकड़े अधिक सामान्य थे.

इंडियन जर्नल ऑफ़ क्लिनिकल बायोकेमिस्ट्री के एक शोध के मुताबिक रोजाना योग करने से फ़ास्टिंग ब्लड ग्लूकोज़, सीरम मेनोल्डिहाइड (MDA) और ग्लायकोसायलेटेड हीमोग्लोबीन में कमी होती है तथा रक्त-चाप में 10-15 mm/Hg तक कमी आती है. रक्त-चाप बढ़ने का मुख्य कारण एड्रीनेलिन हार्मोन है. यह हार्मोन शरीर में "फ़्लाइट और फ़ाइट" प्रतिक्रियाओं के लिए उत्तरदायी होता है. योग इन प्रतिक्रियाओं को "स्विच ऑफ़" कर देता है, जिससे एड्रीनेलिन का स्तर कम हो जाता है और फलस्वरूप रक्त-चाप कम हो जाता है. योग के कारण माँसपेशियों में खिंचाव और शिथिलन होने से भी रक्त-चाप कम होता है. माँसपेशीय संकुचन के कारण मस्तिष्क को सिग्नल भेजे जाते हैं, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप स्ट्रेस हार्मोन और न्यूरोट्रांसमीटर स्रावित होते हैं. ये दोनो रसायन भी तनाव और उच्च रक्त-चाप से संबंधित होते हैं. योग से प्लेटलेट्स की आपस में चिपकने की प्रक्रिया में कमी आती है, जिससे रक्त-चाप में कमी आती है. योग की कुछ विशेष मुद्राएँ किडनी या एड्रीनल ग्रंथि का दाब नियंत्रित करती हैं. ये अंग रेनिन, एड्रीनेलिन और एंजियोटेंसिन के स्राव द्वारा रक्त-चाप नियंत्रित करते हैं. नियमित रूप से योग करने से स्ट्रेस हार्मोन कम होते हैं, जो एक प्रभावी वेसोकॉंस्ट्रिक्टर (रक्त वाहिका संकीर्णक) है. मस्तिष्क की पीयूष ग्रंथि द्वारा स्रावित वेसोप्रेसिन नामक हार्मोन की मात्रा भी योग से कम होती है. योग शरीर के तापमान, मस्तिष्क तरंगों, ह्रदय दर, चयापचय (मेटाबॉलिज़्म) दर, प्रतिरोधक क्षमता आदि को भी नियंत्रित करता है.

योग तंत्रिका-कोशिका (नर्व सेल) को त्वरित क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है, रक्त-परिवहन को आसान बनाता है और शरीर की साम्यावस्था बनाए रखता है. मानव शरीर में 2 प्रकार के तंत्रिका तंत्र होते हैं:
1. अनुकम्पी (Sympathatic) तंत्रिका तंत्र, जिसे फ्लाइट और फाइट तंत्र कहते हैं, क्योंकि यह रक्त-चाप, श्वासोच्छवास दर तथा शरीर में स्ट्रेस हार्मोन का प्रवाह बढ़ाता है. परीक्षा के समय, डरावनी फ़िल्में देखने या ऑफ़िस में काम के तनाव के दौरान यही हार्मोन स्रावित होता है. इस तंत्र के अत्यधिक उत्तेजित हो जाने पर अल्सर, माइग्रेन और ह्रदय संबंधी गंभीर बीमारियाँ भी हो सकती हैं.
2. परानुकम्पी (Parasympathatic) तंत्रिका तंत्र रक्त-चाप, श्वासोच्छवास दर तथा स्ट्रेस हार्मोन का प्रवाह कम करता है. योग के दौरान गहरी साँस लेने की प्रक्रिया परानुकम्पी तंत्रिका तंत्र की क्रियाओं को प्रोत्साहित करती है. इससे शरीर को आराम और रोगों से मुक्ति मिलती है. साथ ही यह अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र की प्रक्रियाओं को धीमा करता है. इसीलिए डर लगने या गुस्सा आने पर गहरी साँस लेने की सलाह दी जाती है. योगिक प्रक्रियाएँ केंद्रीय और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र पर भी असर डालती हैं. ये प्रक्रियाएँ संतुलन और मोटर तंत्रिकाओं (मस्तिष्क से शरीर के अंगों तक संवेदना ले जाने वाली ‍तंत्रिका) के नियंत्रण में होने वाली परेशानियों से बचाती हैं.

हमारे मस्तिष्क में GABA (गामा-अमीनो ब्यूटायरिक एसिड) नामक एक रसायन होता है. GABA का घटा हुआ स्तर कई मानसिक स्थितियों, जैसे अवसाद, उत्कंठा या व्यग्रता के लिये जिम्मेदार है. योग मस्तिष्क में इस रसायन का स्तर बढ़ाकर इन विसंगतियों से हमें बचाता है. एक अन्य रसायन DHEA (डीहाइड्रोइपीएंड्रोस्टीरोन) के कम स्तर से एकाग्रता में कमी आती है, योग इसका स्तर भी सामान्य बनाए रखता है. योग मस्तिष्क को सदमे से होने वाली क्षति या मानसिक आघात से उबरने में मदद करता है. योग का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी होता है. इससे बुद्धिमत्ता, आत्मविश्वास, उत्साह, सकारात्मकता, अंतर्ज्ञान, रचनात्मकता, एकाग्रचित्तता, याददाश्त और सीखने की क्षमता बढ़ती है और मूड अच्छा बना रहता है.

योग स्ट्रेस हार्मोन पर नियंत्रण रखने वाले कॉर्टिसोल को नियंत्रित करता है. कॉर्टिसोल न्यूरोट्रांसमीटर के संतुलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. योग फ़्री-रेडिकल्स से होने वाली क्षतियों जैसे कि कोशिका झिल्ली और कोशिकांगों की टूट-फूट से भी बचाता है. यह तंत्रिका तंत्र को स्थायी बनाता है, प्रजनन संबंधी, ऑटोइम्यून तथा उदर और आँत की बीमारियाँ दूर करता है, अंत:स्रावी तंत्र को नियमित रखता है तथा ग्रंथियों को उत्तेजित करता है. सहनशक्ति, ऊर्जा स्तर, कार्डियो-वास्कुलर दक्षता, प्रतिक्रिया समय, आँख और हाथों का समन्वय और नींद बढ़ाता है.

प्रयोगों से पता चलता है कि नियमित रूप से योग करने से हमारे शरीर के लिए फ़ायदेमंद कोलीनएस्टेरेज़ एंज़ाइम, उच्च घनत्व वाले कोलेस्टेरॉल (High Density Lipid Cholesterol), एस्कॉर्बिक अम्ल (विटामिन सी), कुल सीरम प्रोटीन, थायरॉक्सिन हार्मोन, लिम्फ़ोसाइट की संख्या, एटीपेज़ (ATPase) एंज़ाइम, हीमेटोक्रिट और हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़ता है, साथ ही सोडियम, ग्लूकोज़, कुल कोलेस्टेरॉल, ट्रायग्लिसरॉइड्स, कुल श्वेत रक्त कणिकाएँ (WBC), निम्न घनत्व वाले कोलेस्टेरॉल (Low Density Lipid Cholesterol), अत्यंत निम्न घनत्व वाले कोलेस्टेरॉल (Very Low Density Lipid Cholesterol) और केटेकॉलअमीन्स का स्तर सामान्य हो जाता है.

योग से गठिया, अस्थमा, पीठ और कमर का दर्द, कार्पल टनल सिंड्रोम, वेरीकोस वेंस, अत्यधिक थकान, इपिलेप्सी, सिरदर्द, मल्टीपल स्क्लेरोसिस के इलाज में उल्लेखनीय सफलता मिली है. योग मस्तिष्क में दर्द की अनुभूति वाले केंद्र को दर्द का नियंत्रण करने में मदद करता है तथा प्राकृतिक दर्द निवारकों का स्राव करता है. थॉयराइड ग्रंथि का हार्मोनल स्राव नियंत्रित करके शरीर का भार सामान्य बनाए रखता है और वसा की खपत बढ़ाता है. गहरे श्वासोच्छवास से शरीर की कोशिकाओं, विशेषकर वसा कोशिकाओं की ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है. इससे वसा कोशिकाओं का जारण (ऑक्सीडेशन) बढ़ जाता है और कैलोरी का विघटन होने लगता है. योग से लिपिड चयापचय (मेटाबॉलिज़्म) से संबंधित गड़बड़ियाँ भी दूर की जा सकती हैं.

कुछ योगासनों से डायबीटिज़ मेलाइटस, कोरोनरी हार्ट डीसीज़, हर्निया, वर्टिगो, डिसलिपिडिमिया, तनाव, लीवर, पेन्क्रियाज़, प्लीहा, किडनी और श्वसन तंत्र संबंधी बीमारियाँ दूर होती हैं. ब्रोंकाइटिस, कब्ज, एम्फायसेमा, सर्दी, खाँसी, अम्लीय आमाशय, कफ, वात, पित्त, अपचन, मासिक के पहले होने वाली समस्याएँ, प्रोस्ट्रेट की समस्याएँ, गठिया, साइटिका, सायनस, चर्म रोग, गर्भावस्था की जटिलताएँ, गले की तकलीफें, झुर्रियाँ, सेरीब्रल पाल्सी, ऑस्टियोपोरोसिस जैसी बीमारियाँ भी योग के सही और नियमित अभ्यास से दूर की जा सकती हैं.

योग शरीर की बायोकेमिकल फेक्टरी कही जाने वाली हमारी कोशिकाओं को चिरयुवा बनाए रखता है, या ये कहें कि उम्र हो जाने पर भी वृद्धावस्था का एहसास नहीं होने देता. अगर विज्ञान की मानें तो किसी व्यक्ति की आयु निर्धारण का पैमाना वर्षों की संख्या नहीं, रीढ़ का लचीलापन है. योग से शरीर में लचक आती है, त्वचा में कसाव आता है, चर्बी घटती है, शारीरिक तनाव दूर होते हैं, उदर की माँसपेशियाँ मजबूत होती है, दोहरी ठुड्डी से निजात मिलती है, माँसपेशीयाँ सुडौल होती हैं और शारीरिक मुद्राओं में सुधार होता है. योग कोशिका क्षय की केटाबॉलिक प्रक्रिया तथा कोशिकाओं में ऑटो-इन्टॉक्सिकेशन या स्वत: विषाक्तता कम करता है. साथ ही कोशिकाओं में पोषक पदार्थों और ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है तथा विषैले पदार्थों व कोशिकीय अपशिष्टों का निष्कासन करता है. योग से बालों के फॉलिकल्स में रक्त संचार बढ़ता है, गर्दन की तंत्रिकाओं व वाहिकाओं का रक्त संचार बढ़ने से खोपड़ी में बेहतर रक्त परिवहन होता है और बाल अपने प्राकृतिक रंग में ही बने रहते हैं. योग से देखने और सुनने की क्षमता भी बढ़ती है. पीयूष, थायरॉइड, एड्रीनल और सेक्स ग्रंथियों पर योग का परोक्ष/अपरोक्ष प्रभाव होता है, जो साठ साल के बूढ़े को साठ साल का जवान बना सकता है.

लगातार तनाव में रहने वाले लोगों की शारीरिक प्रवृत्ति अम्लीय हो जाती है. ऐसी स्थिति में कोशिकाओं के लिए ऑक्सीजन लेना कठिन हो जाता है. अम्लीय अवस्था में कोशिकाओं में अनावश्यक तोड़-फोड़ शुरू हो जाती है. इस केटाबॉलिज़्म के कारण विभिन्न प्रकार के हानिप्रद रसायन छोड़े जाते हैं, जिससे रक्त अशुद्ध और विषाक्त हो जाता है. यह प्रदूषित रक्त पूरे शरीर में बहता है जिससे कोशिकाओं, विशेषत: दिमाग की कोशिकाओं को थकान होती है. यही अम्लीयता आमाशय में जाकर अल्सर का कारण बनती है. योग शरीर के अंत:स्रावी तंत्र को लाभदायक रसायन स्रावित करने के लिए उत्तेजित करता है और हमें इन दुष्परिणामों से बचाता है.

योग से साँस को शरीर में अधिक समय तक रोककर रखने का अभ्यास होता है. श्वास के अभ्यास से द्रव्य (फ्लूइड) परिवहन बढ़ता है और फेफड़े मजबूत होते हैं. त्वचा का गैल्वेनिक प्रतिसाद तथा EEG (इलेक्ट्रोएन्सिफ़ेलोग्राफ़ी) की अल्फ़ा तरंगें बढ़ती हैं. योगासनों के कारण होने वाले खिंचाव से फेसिया का आकार बढ़ता है. फेसिया सार्कोमीयर (एकल माँसपेशी कोशिका) और माँसपेशियों को जोड़ने वाले संयोजी ऊतक का रक्षात्मक आवरण है. आणविक स्तर पर फेसिया स्टील से भी ज़्यादा मजबूत होता है. योग से हड्डियों का आकार तक बदल सकता है. योग के कारण होने वाले माँसपेशीय खिंचाव से रक्त-परिवहन में लैक्टिक अम्ल छोड़ा जाता है, जिससे माँसपेशीय थकान नहीं होती. यह जोड़ों, लिगामेंट्स और टेंडन को लचीला, चिकना और मजबूत बनाता है.

ये तो केवल कुछ ही उदाहरण हैं. योग के ऐसे न जाने कितने जैव-रासायनिक प्रभावों से परदा उठना बाकी है अभी...

मनुष्य को प्राचीन शास्त्रों द्वारा दिया गया एक नायाब तोहफ़ा है योग. अब ये हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम इस विधा का कब, कैसे और कितना उपयोग करते हैं... जीवन में सेटल होने, जिम्मेदारियाँ निभाने, घर और बाहर की समस्याओं को सुलझाने और अपने लक्ष्यों को हासिल करने की धुन में कहीं हम अपने शरीर को इतना अनदेखा न कर दें कि जब तक इस पर नज़र पड़े तब तक न ऊर्जा बची हो, न शक्ति और न ही जीवन... जब तक हमें अपनी अतिव्यस्ततम दिनचर्या में से अपने शरीर को कुछ मिनट देने का ख़्याल आए तब तक कहीं ऐसा न हो कि शरीर के पास हमारे लिए ही समय न बचा हो..... बच्चन जी ने ठीक ही कहा था:

"कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गई सुरभित हाला,
कहाँ गया स्वपनिल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीने वालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फ़ूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला."


Friday, April 25, 2008

"नैनोटेक्नोलॉजी: भविष्य के छोटे उस्ताद"

“रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि,
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवारि”.

छोटे की महत्ता के बारे में रहीम ने कितना सही कहा था. आज सदियों बाद यही बात फिर सही साबित हो रही है. अब वह ज़माना नहीं रहा जब वैज्ञानिक अनुसंधान का मतलब होता था बड़े-बड़े उपकरण, बड़े-बड़े प्रयोग, बड़ी-बड़ी प्रयोगशालायें और उन प्रयोगों में आने वाली बड़ी-बड़ी परेशानियाँ. जैसे-जैसे विज्ञान आगे बढ़ता गया, उपकरणों और तकनीकों का विकास होता गया, सुविधाएँ और साधन जुटते गए, ये सब बातें बहुत छोटी होती चली गई. अब तो लैब-ऑन-अ-चिप (एक चिप पर समा सकने वाली प्रयोगशाला) का युग आ गया है. किसी महान व्यक्ति ने कहा भी था कि "विज्ञान की अगली सबसे बड़ी खोज एक बहुत छोटी वस्तु होगी."

क्या आप कल्पना कर सकते हैं शक्कर के दाने के बराबर के किसी ऐसे कम्प्यूटर की, जिसमें विश्व के सबसे बड़े पुस्तकालय की समस्त पुस्तकों की समग्र जानकारी संग्रहीत हो या किसी ऐसी मशीन की जो हमारी कोशिकाओं में घुसकर रोगकारक कीटाणुओं पर नज़र रख सके या फिर छोटे-छोटे कार्बन परमाणुओं से बनाए गये किसी ऐसे टेनिस रैकेट की जो साधारण रैकेट से कहीं अधिक हल्का और स्टील से कई गुना ज्यादा मजबूत हो. कपड़ों पर लगाए जा सकने वाले किसी ऐसे बायोसेंसर की कल्पना कर के देखिये जो जैव-युद्ध के जानलेवा हथियार एंथ्रेक्स (एक जीवाणु) के आक्रमण का पता महज कुछ मिनटों में लगा लेगा. परी-कथाओं जैसा लगता है न ये सब? पर ये कोरी कल्पनाएँ नहीं हैं. विज्ञान ने इन कल्पनाओं में वास्तविकता के रंग भर दिए हैं. कैसे??? जवाब है- नैनोटेक्नोलॉजी के ज़रिये.

नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिकशास्त्री रिचर्ड पी. फिनमेन ने अपने एक व्याख्यान में कहा था- "There is a plenty of room at the bottom” और यही वाक्य आगे चलकर नैनोटेक्नोलॉजी का आधारस्तम्भ बना. रिचर्ड ने अपनी कल्पना में आने वाले कल का सपना देखा था. लेकिन तब उनके पास न तो इतने आधुनिक और सक्षम उपकण थे और न ही इतनी उन्नत सुविधाएँ. उनके लिये अणु-परमाणुओं से खेलना उतना आसान नहीं था, जितना आज हमारे लिए है.

नैनो शब्द शायद आप लोगों के लिये नया नहीं होगा (टाटा मोटर्स ने मेरा काम आसान कर दिया है). नैनो एक ग्रीक शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- Dwarf अर्थात बौना. मीटर के पैमाने पर नैनो को देखा जाए तो यह एक मीटर का अरबवाँ भाग होता है (1 नैनो मीटर = 10-9 मीटर). अगर एक साधारण उदाहरण से समझें तो मनुष्य के एक बाल की चौड़ाई 80,000 नैनो मीटर होती है... अब आप सोच सकते हैं कि 1 नैनो मीटर कितना छोटा होता होगा?

आइये अब थोड़े सरल शब्दों में नैनोटेक्नोलॉजी को समझते हैं. किसी भी निर्माण प्रक्रिया का पहला और सबसे महत्वपूर्ण चरण है उसके परमाणुओं का उचित विन्यास और व्यवस्था. अणु और परमाणुओं को तो आप जानते ही होंगे? किसी पदार्थ के गुण इन्हीं अणुओं और परमाणुओं की व्यवस्था पर निर्भर होते हैं. व्यवस्था जितनी भिन्न, पदार्थ उतना अलग. हमारी सृष्टि अणु और परमाणुओं का संयोग ही तो है. कोयले के कार्बन परमाणुओं को ज़रा पुनर्व्यवस्थित करके तो देखिये... चमचमाता हुआ बहुमूल्य हीरा आपके सामने होगा. रेत के ढेर में सिलिकॉन चिप का अक्स देखने की कोशिश की है कभी? बरगद के वृक्ष, सड़क किनारे खड़े चौपाए और स्वयं में तुलना कर के देखिये... एक ही तरह के तत्वों का पिटारा हैं ये तीनों, अंतर है तो बस उनके अणु और परमाणुओं के संयोजन में.

परमाण्विक स्तर (नैनो स्केल) पर किसी पदार्थ के परमाणुओं में जोड़-तोड़ करना, उन्हें पुनर्व्यवस्थित करना और मनचाही वस्तु बनाना..... यही है नैनोटेक्नोलॉजी. नैनोटेक्नोलॉजी में काम आने वाले पदार्थों को नैनोमटैरियल्स कहा जाता है. ये पदार्थ जितने छोटे हैं, उतने ही अधिक सक्रिय और शक्तिशाली भी. इसका मुख्य कारण है इनका विशाल सतह क्षेत्र. नैनो स्तर पर परमाणुओं का प्रकाशिक (ऑप्टिकल), वैद्युत (इलेक्ट्रिकल) और चुम्बकीय (मैग्नेटिक) स्वभाव भी काफी अलग होता है. इन्हीं विशेषताओं के कारण किसी नई और शक्तिशाली तकनीक की खोज के लिए वैज्ञानिकों का ध्यान परमाणुओं की ओर आकर्षित हुआ. वैसे देखा जाए तो नैनोटेक्नोलॉजी नई विधा नहीं है. बहुलक (पॉलीमर) तथा कम्प्यूटर चिप्स के निर्माण में इसका उपयोग वर्षों से हो रहा है.

नैनोटेक्नोलॉजी ने इन नन्हें अणु और परमाणुओं के साथ हमारे रिश्तों में बदलाव ला दिया है. कम कीमत और कम मेहनत में उच्च गुणवत्ता इस तकनीक से ही सम्भव है. सूचना प्रौद्योगिकी और कम्प्यूटर, भवन-निर्माण सामग्री, वस्त्र उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक्स और दूर-संचार, घरेलू उपकरण, काग़ज़ और पैकिंग उद्योग, आहार, वैज्ञानिक उपकरण, चिकित्सा और स्वास्थ्य, खेल जगत, ऑटोमोबाइल्स, अंतरिक्ष विज्ञान, कॉस्मेटिक्स तथा अनुसन्धान और विकास जैसे अनेक क्षेत्र हैं जहाँ नैनोटेक्नोलॉजी ने धूम मचा दी है. इसने हमें दीर्घकालिक, साफ-स्वच्छ, सुरक्षित, सस्ते और इको-फ्रेंड्ली उत्पाद उपलब्ध करवाए हैं. नैनोमटैरियल, नैनोबॉट्स, नैनोपावडर, नैनोट्यूब्स, नैनोअसेम्ब्लर्स, नैनोरेप्लिकेटर्स, नैनोमशीन और नैनोफैक्ट्री ये तो बस कुछ नाम ही हैं जिन्होंने मानव की अखंड ऊर्जा और असीम क्षमता को एक बिन्दू पर लाकर एकत्रित कर दिया है. जब ऊर्जा और क्षमता का अपव्यय गौण हो जाए और ध्यान केवल लक्ष्य पर हो, तो परिणाम हमेशा ही अद्भुत होते हैं.

आइये अब नैनोटेक्नोलॉजी के कुछ हैरतअंगेज़ अनुप्रयोगों के बारे में भी बात कर लेते हैं. नैनोविज्ञान के उपयोग और अनुप्रयोगों को सूचीबद्ध करना थोड़ा मुश्किल काम है क्योंकि दुनिया का शायद ही कोई क्षेत्र इससे अछूता रहा हो. बायो-मेडिकल अनुसंधान में तो नैनोमेडिसीन ने जैसे करिश्मा कर दिखाया है और इस करिश्मे के पीछे हैं छोटे-छोटे नैनोपार्टिकल्स. इन पार्टिकल्स का आकार कोशिका की अंदरूनी संरचनाओं यहाँ तक कि जैव-अणुओं से भी छोटा होता है. कोशिकाओं में ये पार्टिकल्स बड़े आराम से, बेरोक-टोक घूम-फिर सकते हैं. यही कारण है कि इनका उपयोग नैदानिक और विश्लेषणात्मक उपकरणों, इन-विट्रो (प्रयोगशाला में) और इन-वाइवो (जीवित कोशिका में) अनुसन्धानों, भौतिक व जैविक उपचारों, ऊतक अभियांत्रिकी, ड्र्ग-डीलिवरी और नैनोसर्जरी में बड़े पैमाने पर किया जाता है. नैनोपोरस पदार्थ दवाई के छोटे-छोटे अणुओं को सीधे बीमार कोशिकाओं तक पहुँचाते हैं. नतीजतन दवाईयों के खर्च और साइड इफ़ेक्ट से राहत मिलती है, रोगी जल्द ही भला-चंगा हो जाता है और अन्य स्वस्थ कोशिकाएँ दवाईयों से अप्रभावित रहती है.

खाद्य सामग्री निर्माण, संसाधन, सुरक्षा और डिब्बाबंदी का प्रत्येक चरण नैनोटेक्नोलॉजी के बिना अधूरा है. सूक्ष्मजीव प्रतिरोधक लेप (नैनोपेंट) भोजन को लम्बे समय तक खराब होने से बचाते हैं. भोजन में होने वाले जैविक और रासायनिक परिवर्तनों की पहचान और उपचार अब बहुत आसानी से किया जा सकता है. आसानी से साफ होने वाले तथा ख़रोंच प्रतिरोधी नैनोकोटिंग सिरेमिक एवं काँच आज की पीढ़ी की पहली पसंद बन गए हैं. जंग से बचाव के लिये बनाए गए नैनोसिरेमिक सुरक्षा उपकरण उद्योगों के लिये वरदान साबित हो रहे हैं. पौधों की पोषक पदार्थ ग्राहक क्षमता बढ़ाने वाले और रोगों से बचाने वाले नैनोप्रोडक्ट्स निश्चित ही कृषि क्षेत्र में क्रांति ला देंगे. अब बाज़ार में ऐसे नैनोलोशन भी आ गए हैं जो न केवल आपकी कोशिकाओं को जवान और तंदुरूस्त बनाएंगे, बल्कि बुढ़ापे और बीमारियों से भी आपको कोसों दूर रखेंगे. कितने अद्भुत होंगे नैनोटेक्सटाइल्स और नैनोफैब्रिक्स पर आधारित कपड़े जो ना कभी सिकुड़ेंगे, ना उन पर कभी दाग-धब्बे लगेंगे, और तो और वे हमें कीटाणुओं से भी बचाएंगे.

वह दृश्य ही कितना रोमांचित कर देने वाला होगा जब हम फ़िल्मी तारिकाओं को नैनोसिल्वर युक्त साबुन, शैम्पू, कंडीशनर, दंत-मंजन तथा पराबैंगनी विकिरणों से बचाने वाले नैनोक्रिस्टल क्रीम के विज्ञापनों में देखेंगे. स्त्रियाँ नैनो आयनिक भाप वाले फेशियल और नैनोजेट तकनीक पर आधारित नैनोलिपस्टिक की दीवानी हो रही होंगी. त्यौहारों के मौसम में नैनोसिल्वर युक्त वैक्यूम-क्लीनर, रेफ़्रिजरेटर, वॉशिंग-मशीन और एयर-कंडीशनर पर विशेष छूट दी जाएगी. हमारे खिलाड़ी नैनोबॉल, नैनोरैकेट या नैनोइपॉक्सी हॉकी से खेलते हुए दिखाई देंगे. सड़कों पर नैनोपेंट्स से पुती हुई और नैनोऑइल से चलने वाली गाड़ियाँ दिखाई देंगी जिनमें चुम्बकीय नैनोपार्टिकल्स से बने शक्तिशाली शॉक-एब्ज़ॉर्बर लगे होंगे. ऊर्जा संकट के इस दौर में उच्च शक्ति वाले नैनोस्ट्र्क्चर्ड ऊर्जा बचत उपकरण निश्चित ही बहुत मददगार साबित होंगे. नैनोस्प्रे से महकता वो ऑफिस भी कितना खुशनुमा और साफ-सुथरा होगा जहाँ नैनोकोटेड फर्नीचर, नैनोमटैरियल से बने हुए उपकरण, ऊष्मा-परावर्ती नैनोकोटेड छ्तें और दीवारें तथा सूक्ष्मजीवों के संक्रमण से बचाने वाले फ़ोन और दरवाज़ों के हत्थे होंगे. उत्कृष्ट तथा उच्च परिशुद्धता वाले हार्डवेयर और सॉफ़्टवेयर तथा कई बिलियन प्रोसेसर क्षमता के डेस्कटॉप कम्प्यूटर्स हमारी उत्पादकता को कितना बढ़ा देंगे ये हम सोच भी नहीं सकते.

वाकई मानना पड़ेगा न्यूरॉन्स में लिपटी हुई मानव-मस्तिष्क की अगाध क्षमता को और अनखोजे को खोज निकालने के उसके जज़्बे को. विकास-यात्रा के पहले पायदान पर खड़े आदिमानव ने जंगली जानवरों को चीर-फाड़ करके खाते और उनकी खाल पहनते समय कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसी की कोई नस्ल आगे चलकर नैनोफ़ाइबर पहनेगी, नैनोटी (नैनो चाय) पीएगी और नैनोन्यूट्रिएंट्स खाएगी. उपचार और जागरूकता के अभाव में असमय काल के गाल में समा जाने वाले हमारे पूर्वज उन नैनोरोबोट्स को देखकर कितने खुश होते, जिन्हें आज इंसानी शरीर के भीतर कैंसर कोशिका का ख़ात्मा करने के मिशन पर भेजा जाता है.

कितनी छोटी-छोटी चीज़ों से बना है हमारा जीवन, हमारी प्रकृति और हमारा विज्ञान... और खुद को कितना बड़ा समझते रहते हैं हम.... यह जानते हुए भी कि सूक्ष्म को खोजे बिना विराट की यात्रा संभव नहीं.....